दशहरा और शमी
दशहरा और शमी, का सम्बन्ध उत्तर भारत में प्रचलित है:-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant)
उत्तर भारत में यह विश्वास किया जाता है, की दशहरा के दिन शमी का पौधा घर पर लायें, उसको खाद-पानी देकर उसकी सेवा करें, और हर शनिवार को शाम में तिल तेल का दीपक शमी के पौधे के नीचे जलायें, ऐसा करने से जीवन में कभी धन की कमी नहीं होगी, तथा हर छेत्र में सफलता मिलेगी, दशहरा के दिन माता के मंदिर में लाल कपड़ा या लाल चुनरी भी अर्पित करें, या मंदिर के बाहर बैठे निर्धन को दान करें, तथा मंदिर में प्रकाश दान करें तो जीवन में कभी धन का अभाव नहीं रहेगा। शमी को खेजड़ी, जण्ड या सांगरी नाम से भी जाना जाता है, मूलतः यह रेगिस्तान में पाया जाने वाला वृक्ष है, जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों पर भी पाया जाता है। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है।
विजया-दशमी या दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की प्रथा है। कहा जाता है ये भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर के उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। आज भी कई जगहों पर लोग रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते धन-संपदा के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटते हैं, और उनके कार्यों में सफलता मिलने कि कामना करते हैं। शमी वृक्ष का वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है, अपने 12 वर्ष के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने अपने सारे अस्त्र इसी पेड़ पर छुपाये थे जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था। कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडवों ने शमी के वृक्ष की पूजा की थी, और उससे शक्ति और विजय की कामना की थी, तब से ही ये माना जाने लगा जो भी इस वृक्ष कि पूजा करता है, उसे शक्ति और विजय मिलती है।
शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी । अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥ करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया । तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥
हे शमी, आप पापों का क्षय करने वाली और दुश्मनों को पराजित करने वाली हैं। आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाली हैं, और श्री राम को प्रिय हैं, जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की थी, मैं भी करता हूँ। मेरी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर करके उसे सुखमय बना दीजिये, एक और कथा के अनुसार कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर के ही ज्ञान कि प्राप्ति की थी, शमी वृक्ष की लकड़ी शनि ग्रह की शांति के लिए किसे जाने वाले यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। शनिवार को शनि शांति के लिए शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। शनि देव को शान्त रखने के लिये शमी वृक्ष की पूजा की जाती है, शमी को गणेश जी का प्रिय वृक्ष भी माना जाता है, और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं। बिहार और झारखण्ड समेत आसपास के कई राज्यों में इस वृक्ष की पूजा की जाती है, और इसे लगभग हर घर के दरवाज़े के दाहिनी ओर लगा देखा जा सकता है। किसी भी काम पर जाने से पहले इसके दर्शन को शुभ मना जाता है। आश्विन शुक्ल दशमी को विजय दशमी कहा जाता है, विजय के संदर्भ में दशहरा के दिन शास्त्रों में बताया गया है, की विजय प्राप्ति के लिए शस्त्र (हथियार) की पूजा अवश्य करें।
आज के दिन नवीन हथियार खरीद कर घर की दक्षिण दिशा में टांगना चाहिए, साथ ही शमी और अपराजिता वृक्ष की पूजा करें और दोनों की जड़ दाहिने हाँथ में बांधने से समाज में यश और कीर्ति बढती है, क्यों की दशहरा के दिन ही नौ दिनों तक माँ दुर्गा की पूजा-आराधना करने के बाद भगवान श्री राम ने अभिमानी रावण का वध कर के इस संसार को असत्य पर सत्य की जीत का सन्देश दिया था।
शमीपूजन:–
निम्न श्लोकोंसे शमी की प्रार्थना की जाती है :-
शमी शमयते पापं शमी लोहितकण्टका । धारिण्यर्जुनबाणानां रामस्य प्रियवादिनी ।। करिष्यमाणयात्रायां यथाकाल सुखं मया।तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वंभवश्रीरामपूजिते।।
श्लोक के उच्चारण के साथ ही मानसिक रूप से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘शमी सभी पापों को नष्ट करती है। शमी शत्रुओं का समूल विनाश करती है। शमी के कांटे हत्या इत्यादि के पापों से भी रक्षा करते हैं। अर्जुन के धनुष को धारण करने वाली और भगवान श्रीराम को भी प्रिय लगने वाली शमी मेरा कल्याण करे।
अपराजिता पूजन मंत्र :- हारेण तु विचित्रेण भास्वत्कनक मेखला। अपराजिता भद्ररता करोतु विजयं मम।।
पूजा के समय वृक्ष के नीचे चावल, सुपारी हल्दी की गांठ और मुद्रा रखते हैं । फिर वृक्ष की प्रदक्षिणा कर उसके मूल (जड़) के पास की थोड़ी मिट्टी व उस वृक्ष के पत्ते घर लाते हैं । ऐसा जो आज के दिन करता है, यह साल भर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। अपराजिता देवी सकल सिद्धियों की प्रदात्री साक्षात् माता दुर्गा का ही अवतार हैं। यात्रा प्रारंभ करने के समय माता अपराजिता की यह स्तुति अनिवार्य रूप से करनी चाहिए, जिससे यात्रा में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होता।
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