नवरात्रि पूजन
नवरात्रि में अवश्य करें, कुमारी पूजन:-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant)
नवरात्रि पर्व वर्ष में दो बार आता है। 1. ‘चैत्र नवरात्रि’ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक, तथा 2. ‘आश्विन नवरात्रि’ आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक। चैत्र नवरात्र के दिन से ही नया विक्रमी संवत आरम्भ होता है, और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों की गणना आश्विन नक्षत्र से आरम्भ होती है। इस आधार पर आश्विन मास ज्योतिषीय वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। इस प्रकार दोनों नवरात्र पर्वों के साथ नये शुभारम्भ की भावना जुड़ी हुई है। यह दोनो नवरात्र ऋतुओं के संधिकाल पर पड़ते हैं। संधिकाल की उपासना की दृष्टि से भी इन्हें सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इस प्रकार ऋतु-संधिकाल के नौ-नौ दिन दोनों नवरात्रों में विशिष्ट रूप से कुमारी पूजा व साधना अनुष्ठान के लिये महत्वपूर्ण माने गये हैं। नवरात्र पर्व के साथ दुर्गावतरण की कथा तथा कुमारी-पूजा का विधान जुड़ा हुआ है।
कन्या पूजन क्यों आवश्यक :-
आज के युग (कलयुग) की भयावह पारिवारिक, आर्थिक, मानसिक अथवा सामाजिक समस्या से मुक्ति के लिये तथा शक्ति के उद्भव की कामना के लिये कुमारी-पूजा का विधान आवश्यक बताया गया है। इसलिये शास्त्रों में सभी जाति की बालिकाओं के पूजन का महत्व बताया गया है। अतः कुमारी-पूजन में जाति-भेद का विचार करना उचित नहीं है। जाति-भेद करने से मनुष्य नरक से छुटकारा नहीं पाता। जैसे संशय में पड़ा हुआ मंत्र साधक अवश्य पातकी होता है। इसलिये साधक को चाहिये कि वे देवी आज्ञा से नवरात्रों में सभी जाति की बालिकाओं का पूजन करें, क्योंकि कुमारी सर्वविद्या स्वरूपिणी है, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
वर्ष के दोनो मुख्य नवरात्रों में वस्त्र, आभूषण और भोजन आदि से कुमारी महापूजा करके मन्द भाग्य वाला मनुष्य भी सर्वत्र विजय और मांगल्य प्राप्त करता है। कलियुग में नवरात्रों में की जाने वाली कन्या पूजा ही समृद्धि हेतु सबसे बड़ी उपासना और सबसे उत्तम तपस्या है। भाग्यवान मनुष्य, नवरात्रों में कुमारी-पूजन से कोटि गुना फल प्राप्त करता है। कुमारी-पूजा से मनुष्य सम्मान, लक्ष्मी, धन, पृथ्वी, श्री सरस्वती और महान् तेज को सरलता पूर्वक प्राप्त कर लेता है। उसके ऊपर दसों महाविद्याएें और देवगण प्रसन्न होते हैं- इसमें कोई भी सन्देह नहीं। कुमारी-पूजन मात्र से मनुष्य त्रिभुवन को वश में कर सकता है, और उसे परम शान्ति मिलती है; इस प्रकार कुमारी-पूजन समस्त पुण्य-फलों को देने वाली है।
कठिनाइयों में कन्या-पूजन :-
महान् भय, दुर्भिक्ष आदि उत्पात, दुःस्वप्न, दुर्मृत्यु तथा अन्य जो भी दुःखदायी समय की आशंकाएं हैं तो, वे सभी कुमारी-पूजन से टल जाते हैं। प्रतिदिन क्रमानुसार विधि-विधान पूर्वक, कुमारी पूजन करना चाहिये। कुमारी साक्षात् योगिनी और श्रेष्ठ देवी हैं, विधियुक्त कुमारियों को भोजन कराना चाहिये। कुमारी को पाद्य, आर्घ्य, धूप, कुमकुम और सफ़ेद चंदन आदि अर्पण करके भक्ति-भाव से उनकी पूजा करें। जो मनुष्य इस प्रकार कन्याओं की पूजा करता है, पूजित हुई कुमारियां उसके विघ्न, भय और अत्यन्त उत्कृट शत्रुओं को नष्ट कर डालती हैं। पूजा करने वाले के ग्रह, रोग, भूत, बेताल और सर्पादि से होने वाले अनेक भय नष्ट हो जाते हैं। उस पर असुर, दुष्ट नाग, दुष्ट ग्रह, भूत, बेताल, गंधर्व, डाकिनी, यक्ष, राक्षस तथा अन्य सभी देवता, भूः भुवः, स्वः, भैरव गण, पृथ्वी आदि के सब भूत, चराचर ब्रह्माण्ड, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव-ये सभी प्रसन्न होते हैं।
कन्या की आयु :-
कुमारी पूजन हेतु कन्या की आयु विभिन्न ग्रन्थों के मतानुसार- रुद्रयामलतंत्र के उत्तराखण्ड, छठे पटल में कुमारी पूजन के लिये कन्या की आयु के अनुसार उसे अलग-अलग देवियों का नाम व महत्व देते हुए कहा गया है कि- एक वर्ष की आयुवाली बालिका ‘सन्ध्या’ कहलाती है, दो वर्षवाली ‘सरस्वती’, तीन वर्ष वाली ‘त्रिधामूर्ति, चार वर्ष वाली ‘कालिका’, पाँच वर्ष की होने पर ‘सुभगा’, छः वर्ष की ‘उमा’, सात वर्ष की ‘मालिनी’, आठ वर्ष की ‘कुब्जा’, नौ वर्ष की ‘कालसन्दर्भा’, दसवें में ‘अपराजिता’, ग्यारहवें में ‘रुद्राणी’, बारहवें में ‘भैरवी’, तेरहवें में ‘महालक्ष्मी’, चैदह पूर्ण होने पर ‘पीठनायिका’, पन्द्रहवें में ‘क्षेत्रज्ञा’ और सोलहवें में ‘अम्बिका’ मानी जाती है।
बृहन्नीतंत्र आदि ग्रन्थों में उपर्युक्त नामों से कुछ विभिन्नता पायी जाती है। कुब्जिका-तंत्र के सातवें पटल में इसी विषय का इस प्रकार वर्णन है- पाँच वर्ष से लेकर बारह वर्ष की अवस्था तक की बालिका अपने स्वरूप को प्रकाशित करने वाली ‘कुमारी’ कहलाती है। छः वर्ष की अवस्था से आरंभ कर नवें तक की कुमारी साधकों का ‘अभीष्ट साधन’ करती है। आठ वर्ष से लेकर तेरह की अवस्था होने तक उसे ‘कुलजा’ समझें और उसका पूजन करें। दस वर्ष से शुरू कर जब तक वह सोलह वर्ष की हो, उसे युवती जानें और देवी की भाँति उसका चिन्तन करें।
विश्व सार तंत्र में कहा गया है कि- आठ वर्ष की बालिका ‘गौरी’, नौ वर्ष की ‘रोहिणी’ और दस वर्ष की कन्या ‘कन्या’ कहलाती है। इसके बाद वही ‘महामाया’ और ‘रजस्वला’ भी कहीं गयी हैं। बारहवें वर्ष से लेकर बीसवें तक वह सभी तंत्र ग्रन्थों में सुकुमारी कही गयी हैं।
मंत्रमहोदधि के अठारहवें तरंग में इस प्रकार वर्णन है- यजमान को चाहिये कि वे नवरात्रों में दस कन्याओं का पूजन करे। उनमें भी दो वर्ष की अवस्था से लेकर दस वर्ष तक की कुमारियों का ही पूजन करना चाहिये।
जो दो वर्ष की उम्रवाली है वह ‘कुमारी’, तीन वर्ष की ‘त्रिमूर्ति’, चार वर्ष की ‘कल्याणी’, पाँच वर्ष की ‘रोहिणी’, छः वर्ष की ‘कालिका’, सात वर्ष की ‘चण्डिका’, आठ वर्ष की ‘शांभवी’, नौ वर्ष की ‘दुर्गा’ और दस वर्ष की कन्या ‘सुभद्रा’ कही गयी है। इनका मंत्रों द्वारा पूजन करना चाहिये। एक वर्ष वाली कन्या की पूजा से प्रसन्नता नहीं होगी, अतः उसका ग्रहण नहीं है, और ग्यारह वर्ष से ऊपर वाली कन्याओं का भी पूजा में ग्रहण वर्जित है।
कुमारी-पूजन का फल-
कुब्जिकातंत्र में वर्णन मिलता है कि- जो नवरात्रों में विधि-विधान सहित कुमारी-पूजन करता है, तथा कुमारी को अन्न, वस्त्र तथा जल अर्पण करता है उसका वह अन्न मेरु के समान और जल समुद्र के सदृश अक्षुण्ण तथा अनन्त होता है। अर्पण किये हुए वस्त्रों द्वारा वह करोड़ों-अरबों वर्षों तक शिवलोक में पूजित होता है। जो कुमारी के लिये पूजा के उपकरणों को देता है, उसके ऊपर देवगण प्रसन्न होकर उसी के पुत्र रूप से प्रकट होते हैं। कलिकाल आज के युग की देन भयावह पारिवारिक, आर्थिक, मानसिक अथवा सामाजिक समस्याओं से मुक्ति के लिये तथा शक्ति के उद्भव की कामना के लिये कुमारी-पूजा का विधान आवश्यक बताया गया है। अतः प्रत्येक देवी उपासक वर्ष के दोनो नवरात्र में कन्या पूजन अवश्य करें।
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