यज्ञ द्वारा रोग निवारण
यहां हम यज्ञ द्वारा रोग निवारण की ही चर्चा कर रहे हैं, जिसे वेदों में सवोपरि माना गया है :-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant)
यज्ञ द्वारा रोग निवारण/नियंत्रण : आदियुग से अब तक रोगों को नियंत्रित रखने हेतु चिकित्सा प्रणाली का विकास हुआ है । चिकित्सा प्रणालियों के क्रमिक विकास में वेदों में अनेक प्रकार कि पद्धतियों का उल्लेख मिलता है । जब सब प्रकार के उपचार और वैद्य, रोगी को स्वस्थ करने में असमर्थ हो जाते हैं, तब वह रोगी पूजा अर्चाना, स्तुति, प्रार्थना, यज्ञ, याग, दान, पुण्य आदि की शरण लेता है । रोग मुक्ति के अनेको मन्त्र ऋग्वेद, अर्थवेद और यजुर्वेद में पाए जाते हैं ।
यहां हम यज्ञ द्वारा रोग निवारण की ही चर्चा कर रहे हैं, जिसे वेदों में सवोपरि माना गया है । वैसे तो वेद मन्त्रों द्वारा ही जीवन की सभी इच्छाएं पूर्ण हो सकती हैं, और इसके लिए बड़े – बड़े राजसू्य यज्ञ, पुत्रेष्टि यज्ञ, रोग निवारणार्थ यज्ञों के मन्त्र और उनकी समिधा, औषधियां और विधि कही एक सूत्र से न होकर अनेकानेक गर्न्थो में फैली पड़ी है । यदि इन सब विधियों को संकलित कर लिया जाये तो मानव के स्वास्थय लाभ के लिए सबसे सरल, सफल, हानिरहित चिकित्सा पद्धति का उपयोग हो सकता है।
एलोपैथी की सभी रोगाणु नाशक औषधियों के सम्बन्ध में सभी डॉक्टरों का एक मत है कि ये शरीर को हानि पहुचाये बिना रोगाणुओं का नाश कर ही नहीं सकती । जबकि यज्ञ पद्धति से ऐसे सूक्ष्म कणो को त्सर्जन होता है, जो शरीर को हानि पहुंचाये बिना किटाणुओं को समाप्त कर देते हैं । यज्ञ का सर्वश्रेष्ठ गुण तो यह है, कि इसमें रोगी को औषधी सेवन करने की आवश्यकता ही नहीं होती । इसके द्वारा शरीर में औषधि इन्जेक्शन के तीव्र प्रभाव से अधिक शीघ्र शरीर पर अपना प्रभाव डाल देती है । अग्नि के इस महान कार्य के लिए ही हमारे पूर्वजों ने अग्नि को देव माना है ।
यज्ञ में प्रयुक्त विशेष वृक्ष की समिधा और औषधि मिलकर वाष्प रूप में श्वास के द्वारा शरीर की रक्त प्रणाली में पहुंचते ही अपना प्रभाव तत्काल दिखाती है, इसीलिए यज्ञ में प्रयुक्त की जाने वाली । समिधा (लकड़ी) पीपल, आम, गूलर, जामुन आदि वृक्षों से ग्रहण करने का विधान है। वैदिक यज्ञ और यज्ञ चिकित्सा का अपना शास्त्रीय विधान है । विधानानुसार किए गए प्रयास ही फलदायी होते हैं ।
डॉक्टर जिस मरीज के मर्ज को लाईलाज घोषित कर चुके हों, ऐसे रोगियों ने भी स्वास्थ्य लाभ पाया है । किस रोग के लिये किस मन्त्र का जप या अभिषेक अथवा हम करना है, इस विषय के जानकार तथा संयम से रहने वाले साधक ही यज्ञ द्वारा चिकित्सा कर सकते हैं।
यकृत में पितव्रण के लिए :-
गोधृत मिलाकर हवन में गिलोय, काले तिल, ढाक के सूखे फूल की सामग्री बनाकर, ढाक की समिधाओं ( लकडी ) से । हवन करायें । प्रथम गणेशाम्बिका पूजन करके निम्नलिखित मन्त्र से आहुतियां दें ।
– रोगान शेषानपहसिंतुष्टा रूष्टातु कामान् सकलान् भिष्टान् । । जापानिां न तिपत्नराणां त्वामाश्रिता याश्रयतां प्रयान्ति । ।
500 आहुतियां प्रतिदिन पांच दिन तक हवन करें, औषधियों के सेवन व हवन से। व्रण ठीक हो जाता है ।इस प्रकार उच्च कोटि के डाक्टरों से निराश रोगी एक मास में पूर्ण स्वस्थ हो सकता है ।
चरक संहिता आयुर्वेद का श्रेष्ठतम ग्रन्थ है, चिकित्सा खण्ड में यज्ञ – चिकित्सा पर विस्तृत प्रकाश डाला है ।तपेदिक रोग से मुक्ति की इच्छा रखने बालों का यक्ष्मा नाशक वेद विहित यज्ञ का आश्रय लेना चाहिए ।
अथर्वेद में कहा गया है :-
।किन तं यक्ष्मा अरुन्धते नैर्नशयथोऽश्नुते ।।
अर्थात गूगल औषधि की उत्तम गन्ध जिस रोगी को प्राप्त होती है उसे, यक्ष्मा आदि बिमारियां नहीं सताती है । ऋग्वेद में औषिधियों का जन्म यज्ञाग्नि से बताया गया है ।
औषधियाँ को सम्बोधित करते हुए कहा गया है – कि हे औषधियों ! तुम सैकड़ों गुणों से सम्पन्न हो, और प्राणियों को अरोग्यता प्रदान करने वाली हो, बिना श्रद्धा के किया हुआ यज्ञ सफल नहीं होता है, श्रद्धा के साथ विधि भी आवश्यक है।
यज्ञ वेदी से उठने वाले धुए से जहां नाना भांति के अस्वास्थ्यकार आकाशीय कीट पतंगों का विनाश होता है वहीं संस्कृत की सूक्तियों के उच्चारण से हृदय में पवित्रता, निर्मलता का संचार होता है ।
किस रोग में कौनसी औषधि से करें :-
यज्ञ यदि किसी रोग विशेष को चिकित्सा के लिए हवन करना हो तो उसमें उस रोग को दूर करने वाली ऐसी औषधियाँ सामग्री में और मिला लेनी चाहिए जो हवन करने पर खाँसी न उत्पन्न करती हो । यह मिश्रण इस प्रकार हो सकता है :-
( 1 ) साधारण बुखारों में तुलसी की लकड़ी, तुलसी के बीज, चिरायता, करंजे की गिरी।
( 2 ) विषम ज्वरों में – पाढ़ की जड़, नागरमोथा, लाल चन्दन, नीम की गुठली, अपामार्ग।
( 3 ) जीर्ण ज्वरों में – केशर, काक सिंगी, नेत्रवाला, त्रायमाण, खिरेंटी, कूट, पोहकर मूल।
( 4 ) चेचक में – वंशलोचन, धमासा, धनिया, श्योनाक, चौलाई की जड़।
( 5 ) खाँसी में – मुलहठी, अडूसा, काकड़ा सिंगी, इलायची, बहेड़ा, उन्नाव, कुलंजन।
( 6 ) जुकाम में – अनार के बीज, दूब की जड़, गुलाब के फूल, पोस्त, गुलबनफसा।
( 7 ) श्वॉस में – धाय के फूल, पोन्त के डौड़े, बबूल का वक्कल, मालकाँगनी, बड़ी इलायची।
( 8 ) प्रमेह में – ताल मखाना, मूसली, गोखरु बड़ा, शतावर, सालममिश्री, लजवंती के बीज।
( 9 ) प्रदर में – अशोक की छाल, कमल केशर, मोचरस, सुपाड़ी, माजूफल।
( 10 ) वात व्याधियों में – सहजन की छाल, रास्ना, पुनर्नवा, धमासा, असगंध, विदारीकंद, मैंथी।
( 11 ) रक्त विकार में – मजीठ, हरड, बावची, सरफोका, जबासा, उसवा।
( 12 ) हैजा में – धनियाँ, कासनी, सौफ, कपूर, चित्रक।
( 13 ) अनिद्रा में – काकजघा पीपला – मूल, भारंगी।
( 14 ) उदर रोगों में – चव्य, चित्रक, तालीस पत्र, दालचीनी, जीरा, आलू बुखारा, पीपरिं।
( 15 ) दस्तों में – अतीस, बेलगिरी, ईसबगोल, मोचरस, मौलश्री की छाल, ताल मखाना, छूहारा ।
( 16 ) पेचिश में – मरोडफली, अनारदाना, पोदीना, आम की गुठली, कतीरा ।
( 17 ) मस्तिष्क संबंधी रोगों में – गोरख मुंडी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, बच शतावरी ।
( 18 ) दांत के रोगों में – शीतल चीनी, अकरकरा, यवूल की छाल, इलायची, चमेली की जड़ ।
( 19 ) नेत्र रोगों में – कपुर, लौंग, लाल चन्दन, रसोत, हल्दी, लोध ।
( 20 ) घावों में – पद्माख, दूब की जड़, बड़ की जटाएं, तुलसी की जड़, तिल, नीम की गुठली, आँवा हल्दी ।
( 21 ) बंध्यत्व में – शिवलिंग के बीज, जटामासी, कूट, शिलाजीत, नागरमोथा, पीपल वृक्ष के पके फल, गूलर के पके फल, बड़ वृक्ष के पके फल, भट कटाई ।
इसी प्रकार अन्य रोगों के लिए उन रोगों की निवारक औषधियाँ मिलाकर हवन सामग्री तैयार कर लेनी चाहिये ।
निरोगी रहने हेतु महामन्त्र :-
मन्त्र 1 :-
• भोजन व पानी का सेवन प्राकृतिक नियमानुसार करें।
• रिफाइन्ड नमक, रिफाइन्ड तेल, रिफाइन्ड शक्कर (चीनी) व रिफाइन्ड आटा ( मैदा ) का सेवन नहीं करें।
• विकारों को पनपने न दें (काम, क्रोध, लोभ, मोह, इर्ष्या,)।
• वेगो को न रोकें (मल, मुत्र, प्यास, जंभाई, हंसी, अश्रु, वीर्य, अपानवायु, भूख, छींक, डकार, वमन, नींद,)।
• एल्मुनियम के बर्तन का उपयोग न करें (मिट्टी के सर्वोत्तम)।
• मोटे अनाज व छिलके वाली दालों का अत्यधिक सेवन करें।
• भगवान में श्रद्धा व विश्वास रखें।
मन्त्र 2 :-
• पथ्य भोजन ही करें ( जंक फूड न खाएं)।
• भोजन को पचने दें ( भोजन करते समय पानी न पीयें एक या दो घुट भोजन के बाद जरूर पिये व डेढ़ घण्टे बाद पानी जरूर पियें)।
• सुबह उठेते ही 2 से 3 गिलास गुनगुने पानी का सेवन कर शौच क्रिया को जायें।
• ठंडा पानी बर्फ के पानी का सेवन न करें।
• पानी हमेशा बैठ कर घूंट घूंट करके पियें।
• बार बार भोजन न करें, आर्थत एक भोजन पूर्णतः पचने के बाद ही दूसरा भोजन करें।
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