• 24 November 2024

शनि देव

ग्रहों में यदि शनिदेव न होते …

Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant)

ज्योतिषाचार्य जब कुण्डली में उन ग्रहों की महादशा व अन्तर्दशा के संदर्भ में ग्रहों के प्रभावों का विचार करते हैं, तब शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के परिणाम की सूचना मिलती है, किन्तु शनि के प्रभाव का निरूपण करते समय वे इन्हें नितांत दु:ख व शोक-कारक ग्रह के रूप में स्वीकार करते हैं। शनिदेव की महादशा के विषय में कहा गया है कि- शनिदेव की महादशा सदैव मनुष्य के लिए दु:ख, शोक, नैराश्य तथा असफलता आदि के रूप में ही आती है, तथा उस समय मनुष्य को सब कुछ शून्य दिखाई देता है। आलस्य का प्रभाव शरीर पर बहुत हो जाता है, मनुष्य की विवेक शक्ति क्षीण हो जाती है, उसे अपने ही परिश्रम का पूर्ण फल नहीं मिलता, वे बार-बार अपनों की निंदा का पात्र बनता रहता है। आप पाठक भी विचारकों के इस तथ्य से सहमत होंगे कि शनिदेव की महादशा के बारे में ऊपर जो कुछ कहा गया है वह अधिकाशतः सत्य है।

वस्तुतः शनिदेव के पास वह सब अधिकार हैं, जो एक न्यायाधीश अथवा दण्डनायक के पास होते हैं। किन्तु प्रत्येक कुण्डली वाले जातक के लिये वे ऐसा नहीं करते दण्ड वा न्याय के अतिरिक्त भी बहुत कुछ करते हैं। उदाहरणार्थ- यदि शनिदेव वृषभ या तुला राशि में होकर केन्द्र में हैं, अथवा कुण्डली में योगकारक होकर केन्द्र या त्रिकोंण में हैं, अथवा केन्द्रेश होकर त्रिकोणेश के साथ या त्रिकोणेश में होकर केन्द्रेश के साथ हैं, तो इनकी महादशा में निम्नलिखित शुभ परिणाम होते हैं :-

कृषि कार्य में सफलता तथा लाभ, पशुओं की समृद्धि, बहुत आय, नौकर-चाकरों से सुख, मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति, कार्यों में सफलता, व्यापार व्यवसाय में लाभ, राज्य से सम्मान, राजनैतिक सफलता, स्पष्ट है कि शनिदेव केेवल शोक-दुःखप्रद ग्रह नहीं हैं अपितु परिस्थिति विशेष में वह अन्य सौम्य ग्रहों की तरह, तथा कभी-कभी उनसे भी अधिक सुख तथा सौभाग्य की सूचना देने वाले ग्रह हैं। शनिदेव को केवल शोकमय ग्रह बताना जनमानस तथा विद्वजनों का भ्रम है, यह पूर्ण सत्य नहीं है। सत्य तो यह है कि शनिदेव सबसे अधिक सत्य का ज्ञान करवाने वाले एवं न्याय-प्रिय ग्रह हैं। एक सत्यप्रिय एव न्यायनिष्ठ न्यायाधीश में जो गुण होने चाहिए वे सभी गुण ग्रहों में न्यायाधीश के पद पर विराजमान शनिदेव में भरपूर मात्रा में हैं। अतः प्रकृति ने इन्हें इस संसार के सर्वशक्ति सम्पन्न दण्डाधिकारी के रूप में नियुक्त किया है। एक सच्चे न्यायाधीश की तरह शनिदेव मनुष्य को न केवल उसके द्वारा कुकृत्यों का दण्ड देते हैं, अपितु प्राणियों को सुकर्मो का पुरस्कार भी देते हैं। ‘न्यायाधीश’ के व्यापक अर्थ में शनिदेव शिक्षक भी हैं, और दण्डाधिकारी भी हैं, यह कार्य शनिदेव अपनी महादशा, अंतरदशा अथवा साढेसाती में मनुष्य को तपा कर शुद्ध सोने की तरह (खोट रहित) बना देने के लिये ही करते हैं। इन की महादशा, अंतरदशा या शनि साढ़ेसाती के समाप्त होने पर मनुष्य अच्छी तरह समझ जाता है, कि यह सब उसके अपने ही बुरे कर्मो का फल था, और अब आगे उसे ऐसे कुकृत्यों से बचकर रहना है। इस लिये शनिदेव से मनुष्य अपने जीवन को सही ढंग से जीने की कला भी सीखता है। वे दार्शनिक भी हैं, धर्मगुरु भी हैं, मन में वैराग्य भाव पैदा कर मनुष्य को संन्यासी भी बनाने वाले यह शनिदेव हैं; क्योकि आत्म जागरण व सच्ची शिक्षा ही संसार की समस्त व्याधियों से बचने का एक मात्र सार्वभौम उपचार है। अतः संसार में शुभ या अशुभ फल प्रदान करने के लिए जितने शक्ति सम्पन्न शनिदेव हैं उतना अन्य कोई ग्रह नहीं है। जातक पारिजातकार ने ठीक ही कहा है :- आयुर्जीवन, मृत्युकारण, विपत्, सम्पत्, प्रदाता शनिः।

शनिदेव प्राणीयों को सब कुछ देते हैं, केवल पात्रता चाहिए। यह बात और है, कि इस कलियुग में मनुष्य सुकर्मों की अपेक्षा कुकृत्य अधिक करता है। अतः इसे पुरस्कार की अपेक्षा दण्ड ही अधिक भुगताना पड़ता है। यही कारण है कि इस ग्रह को शुभकारक की अपेक्षा अशुभकारक (दण्ड देने वाला) अधिक माना जाता है। पारम्परिक रूप से शनिदेव के स्वरूप की इस प्रकार वंदना की जाती है :-

नीलान्जनं समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।
छायामार्तण्ड-सम्मूतं तं नमामि शनेश्चरम्।।

शनिदेव का यह स्वरूप हमें याद दिलाता है :- न्यायाधीश की वर्तमान वेशभूषा तथा उसके चारों ओर घिरे हुए काले कोट पहने हुए वकीलों से युक्त परिवार की। उक्त श्लोक का अर्थ इस प्रकार है। ‘मैं ऐसे स्वरूप वाले शनिदेव की वंदना करता हूं जो- नीली आभा लिये हुये काले काजल के समान कांति वाले हैं। (सभी न्यायाधीश काले कोट पहन कर काजल के समान कांतिवाले लगते हैं)। सूर्य के पुत्र हैं, (सूर्य ग्रहों में राजा या अधिकारी हैं, उन्होंने ही शनिदेव को जन्म दिया है)। यमराज के बड़े भाई हैं (यमराज जेलर अथवा जल्लाद का प्रतीक है)। छाया एवं मार्तण्ड से उत्पन्न है (सूर्य शासन, प्रकाश एवं छाया-अंधकार के प्रतीक हैं। कहीं प्रकाश कहीं अपराध या अंधकार है, इसी कारण जिनका जन्म हुआ है)। धीमे चलने वाले हैं, (अदालतों में अनेक तारीखों अथवा लम्बी प्रतीक्षा के बाद जाकर न्याय मिलता है। इसी लिये कहा भी जाता है :- भगवान के घर देर है, परंतु अंधेर नहीं।) निलम्बित प्रकरणों के लिए लोग व्यर्थ ही न्याय व्यवस्था को दोष देते हैं। इस प्रकार न्यायाधीश के पक्ष में भी उक्त श्लोक का अर्थ एकदम युक्तियुक्त हो जाता है :- मैं ऐसे न्यायाधीश की वंदना करता हूं जो काजल के समान कांति वाले हैं, शासन के कर्म-पुत्र हैं, शासन के द्वारा नियुक्त वरिष्ठ अधिकारी हैं, अंधकार जन्य कृत्यों के प्रति शासन की चिंता के कारण ही इनका जन्म हुआ है, तथा जो मंदगति से चलने वाले बहुत सोच विचार के पश्चात बेशक अधिक समय लग जाये परंतु सच्चा न्याय करने वाले हैं।

न्यायाधीश से शनिदेव का साम्य तो बाह्य वैचित्र्य है किन्तु अधिक महत्वपूर्ण तो आंतरिक साम्य है। न्यायाधीश, सिविल, सर्वेण्टस, दार्शनिक, खोजकर्ता वैज्ञानिक आदि की जन्म पत्रिकाओं में उनको उच्चपद दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका शनिदेव की ही रहती हैं। जब प्राणी को अपने बुरे कर्मो का फल मिलने का समय आ जाता है, तब उस समय किसी न किसी रूप में शनिदेव का प्रभाव उस पर होता ही है। चाहे वे प्रभाव महादशा के रूप में हो, चाहे अंतरदशा के रूप में अथवा साढेसाती के रूप में ही क्यो न हो, परंतु यह प्रभाव होता मनुष्य की आशा के विपरीत ही है। वैपरीत्य की स्थिति में सामान्य रूप में शनिदेव निम्नलिखित परिणाम देने वाले होते हैं :-

रोग, धनहानि, पर बंधन अर्थात जेल यात्रा, वियोग, प्रियजन की मृत्यु, मृत्यु अथवा मृत्युतुल्य कष्ट, क्रान्ति (प्रबल विरोध) अथवा गृहयुद्ध, क्षत्र-भंग। यदि किसी व्यक्ति का आहार-व्यवहार असंयमित है, तो उसके शरीर में किसी न किसी प्रकार का विकार हो जाना निश्चित है। शरीर की इस विकृति को दूर करने के लिए अपनी दशा-अन्तर्दशा में अथवा साढे़साती की अवधि में शनिदेव व्यक्ति को रोगी बना देते हैं, ताकि वह औषधि से संयमित बने। ऐसा करके वे उसका रेचन करते हैं, तथा संयम के रास्ते पर लाने के लिए एक संकेत देते हैं। हममें से अधिकांश को यह मालूम होगा कि साढ़ेसाती के तत्काल बाद की अवधि में मनुष्य अपने आपको तरो-ताजा तथा नया महसूस करता है। हर मनुष्य पर, प्रत्येक 30 वर्ष की अवधि में एक बार शनिदेव यह उपकार करते हैं। जब शरीर अत्यंत जीर्ण हो जाता है, तब अपने तृतीय उपकार के समय शनिदेव सदा के लिए ही इस कष्ट को दूर कर देते हैं। इस रूप में शनिदेव उस कठोर-डाक्टर की तरह हैं, जो रोगी की व्याधिनाश के लिए आॅपरेशन के समय रोगी के चिल्लाने की परवाह नहीं करता क्योंकि वास्तविकता कल्याण (निरोगता) में निहित है। मनुष्य का शनिदेव को दोष देना उसी प्रकार अनुचित है, जैसे बच्चों का, डाॅक्टर के हाथ में इंजेक्शन को देखकर भयभीत होना।

इसी प्रकार जब मनुष्य अवैध तरीके से आपार धन सम्पत्ति एकत्रित कर लेता है तो शनिदेव अपनी दशा, अन्तर्दशा में उसका वह धननाश अवश्य करते हैं। अत्याचारी या अपराधी प्रवृति वाले अधिकारी से प्रजा को होने वाले कष्ट से बेखबर राजा को वह निर्ममता पूर्वक धूल में मिला देते हैं। समाज में यदि शोषण अत्यधिक बढ़ जाये तो क्रांतिकारियों के रूप में शनिदेव पुनः व्यवस्था कायम कराते हैं। शनिदेव हर प्रकार से हारे हुये मानव का मार्गदर्शन भी करते हैं, तथा प्रतिनिधित्व भी करते हैं, अतः प्रत्येक विचार क्रांति में शनिदेव की प्रेरणा ही रहती है। अन्यायी कोई भी वर्ग हो, शनिदेव के दण्ड से बच नहीं सकता। शनिदेव का अपना जीवन अत्यंत सादा है, जो उसे सार्वभौम न्याय प्रशासक के लिये उपयुक्त बनाता है। अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं से व्यक्ति मार्ग से विचलित होता है। शनिदेव ने स्वेच्छा से राजकुमार होते हुए भी सेवक होना स्वीकार किया, किसी प्रकार की राजकीय ठाटबाट स्वीकार नहीं की, हाथी घोड़ों को छोड़कर उसने ‘महिष से ही संतोष’ किया। सोना-चांदी आदि आभूषणों, मूल्यवान वस्तुओं को छोड़कर लोहा ही स्वीकार किया। उड़द तथा तेल ही इन्हें संतोष देते हैं। इन्हें रंग-बिरंगे रेशमी वस्त्र भी पसंद नहीं- काला कपड़ा ही अभीष्ट है।

राजमंत्री, न्यायाधीश, दार्शनिक आदि महान व्यक्तियों को बनाने वाले यह ग्रह रूप शनिदेव जो किसी को इन्द्र के समान वैभवशाली जीवन प्रदान करते हैं, तथा अपराधी, अत्याचारी होने पर इन्द्र जैसे वैभवशाली को भिखारी बनाकर धूल में भी मिला सकते हैं, परंतु इनका अपना जीवन सादा तथा आडम्बरहीन है। हम कह सकते हैं, कि शनिदेव साक्षात शिव के अवतार हैं, जो अमृत पिलाने के लिए स्वयं विषपान करते हैं। अब आप स्वयं ही विचार करें कि :- ग्रहों में यदि शनिदेव न होते…? तो संसार में कितना अंधकार होता? ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नमः।

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