शकुन शास्त्र
शकुन अपशकुन :-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant),
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शकुन शास्त्र को अंधविश्वास की श्रेणी में रखा जाये अथवा भविष्य बताने वाली एक विद्या के रूप में माना जाये? वस्तुतः यह विद्या भी ज्योतिष की तरह ही वैज्ञानिक विद्या है। अष्टांग ज्योतिष का एक भाग होने के अतिरिक्त ज्योतिष की तरह इसका भी एक आधार है, इसका मूल आधार प्रकृति विज्ञान है।
जो घटना घट रही है, उसके प्रारम्भ की स्थूल प्रक्रिया भले ही हमारे सामने आज प्रारम्भ हो रही है। किन्तु प्राकृतिक वातावरण में उसके प्रारम्भ की सूक्ष्म प्रक्रिया बहुत पहले प्रारम्भ हो चुकी होती है। उस सूक्ष्म प्रक्रिया का प्रभाव प्रकृति के वातावरण में रहने वाले प्राणियों द्वारा ग्रहण कर लिया जाता है, या पहचान लिया जाता है।
वे अपनी अंग चेष्टाओं से उस प्रभाव की अभिव्यक्ति प्रकट करते हैं। प्राचीन महर्षियों ने प्रकृति की सूक्ष्म प्रक्रिया से प्रभावित प्राणियों की उन अंग-चेष्टाओं को अभिव्यक्त प्राणियों को सूक्ष्म दृष्टि से देखा, पहचाना और फिर परीक्षण भी किया हैं। प्राचीन महर्षियों ने सूक्ष्म प्रक्रिया से प्रभावित प्राणियों की उनकी चेष्टाओं का सूक्ष्म अध्ययन कर जो फलादेशों का संग्रह किया, वह कदापि अवैज्ञानिक नहीं हो सकता।
‘शकुन, पक्षी का पर्यायवाची है। शकुन शास्त्र का सर्व प्रथम संकलन जिस समय हुआ होगा, उस समय केवल शकुन अर्थात् पक्षियों के दर्शन तथा शब्द श्रवण के आधार पर ही शुभाशुभ के निर्णय संकलित किये गये होंगे। क्योंकि प्राकृतिक वातावरण में पले पौधे, पक्षियों पर सूक्ष्म प्राकृतिक परिवर्तनों का प्रभाव शीघ्रतिशीघ्र पड़ता है। वे अत्यधिक संवेदनशील होते हैं।
आहार अन्वेषण की कठिनाई तथा शीत और तुफानी मौसम से बचने के लिये उत्तरी गोलार्द्ध के लाखों पक्षी हजारो मील की यात्रा करके दक्षिण गोलार्द्ध के गर्म देशों में पहुंच जाते हैं। खंजन पक्षी भी भारत में केवल शीत काल में ही रहता है। चिड़ियों का रज-स्नान वर्षा का सूचक होता है। सारस और चक्रवाक गीष्म के प्रारंभ में उत्तरी प्रदेशों में चले जाते हैं।
ज्यों-ज्यों इस निमित्त शास्त्र की ओर सर्व साधारण की रूचि जागृत हुई त्यों-त्यों शुभाशुभ सूचक शकुनों के साथ पशुओं की चेष्टाओं तथा शब्दों की शुभाशुभता का संकलन भी होता चला गया।
इस प्रकार उत्तरोत्तर संकलनों में बादल, वायु, विद्युत, उल्कापात, गान्धर्वनगर, ग्रहण आदि आन्तरिक्ष; अंगस्फुरण, पल्लीपतन, छींक विचार आदि कायिक और श्रृगाल, श्वान, सिंह, मार्जार आदि श्वापद; हाथी, ऊँट, वृषभ, गाय, भैंस आदि चतुष्पद; सर्प, नकुल, मूषक आदि सरिसृप; भुजगादि सरिसृप जन्तुओं की चेष्टाओं तथा शब्दों का शुभाशुभ भी जोड़ दिया गया होगा।
शकुन विद्या विशारदों का यह अनुभव है कि, शुभाशुभ कार्यों के विपाक से प्रतिक्षण प्रत्येक मानव जो शुभाशुभ फल भोगते हैं, वे शकुन द्वारा पहले जाने जा सकते हैं।
तत् पश्चात् धार्मिक अनुष्ठानों से अशुभ का प्रतिकार और शुभ का परिश्कार कर सुख सम्पत्ति से समृद्ध हो सकते हैं। विपत्ति से बचने की और सम्पत्ति प्राप्त करने की कामना सांसारिक जीवों को सर्वदा रही है। सभी प्राणी सुख के इच्छुक देखे गये हैं, किन्तु किसी को दुःख का इच्छुक कभी नहीं देखा गया।
इसलिये शकुन विद्या का अतीत में जितना महत्व था, वर्तमान में भी इसका इतना ही महत्व हैं। शकुन विद्या आज भी प्रकाश स्तम्भ बनी हुई है। आधुनिक जीवन में भी यदि इसका उपयोग किया जाये तो सुख-दुःख का ज्ञान अविलम्ब एवं स्पष्ट हो सकता है।
पक्षियों की पहचान और उनकी ध्वनियों का विज्ञान कुशाग्र बुद्धि के अतिरिक्त कौन प्राप्त कर सकता है? अंग चेष्टाओं का विश्लेषण करके शुभाशुभ भविष्य का क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करने की यदि इच्छा हो तो, मनुष्य को इस विद्या का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
शकुन विद्या का प्रचार-प्रसार शिक्षित वर्ण की अपेक्षा अशिक्षित लोगों में अधिक पाया जाता है। जंगलों में रहने वाले भील मेना, कंजर, वागरी, नायक, बावरी, सांसी आदि अनेक लोग इस शकुन विद्या के जानकार होते हैं। यह ज्ञान उन्हें अपने पूर्वजों की परम्परा से प्राप्त होता रहा है। अनपढ़ होने के कारण अपने ज्ञान को लिपिबद्ध करने में वे अब तक भी असमर्थ रहे हैं। इसलिये यह ज्ञान शनैः क्षीण होता जा रहा है।
शिक्षित वर्ग से यह ज्ञान अशिक्षित वर्ग में कैसे पहुंचेगा? यह प्रश्न है। इसका समाधान यह है कि जिस प्रकार इस विद्या के महान् आचार्यों का निवास अतीत में प्रायः तपोवनों में था। वहां वनवासी जातियों के बाल, वृद्ध, युवा, स्त्री पुरूषों को उन महान् पुरूषों की सेवा व सत्संग का लाभ मिलता रहता था।
पक्षियों की ध्वनियों का श्रवण व उनका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना वनवासियों के लिये जितना सरल व सुगम हो सकता है, उतना ग्राम व नगर में भी। जिन का शकुन ज्ञान महान् चमत्कार पूर्ण है, वे अशुभ शकुन देख कर भावी विगत्तियों से सावधान हो जाते हैं, और सुरक्षा के लिये हर संभव प्रयत्न करके सफलता प्राप्त कर लेते हैं, और शुभ शकुन देखकर अपने इष्ट कार्य में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, तथा वे जीवन सुखमय बनाने में संलग्न रहते हैं।
शकुनों की वैज्ञानिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण भूकंप उत्पात के सम्बंध में उद्धृत ये पंक्तियां हैं- प्रतिवर्ष विश्व के किसी न किसी कोने में भीषण उत्पात की संभावना रहती है। अभी तक न कोई ऐसा यंत्र आविष्कृत हुआ है, और न ही किसी ऐसी विधि का पता चला है कि भूकम्प की पूर्व सूचना दे सके।
अनेक भूकम्पीय घटनाओं से एक मनोरंजक बात का पता लगा है कि पशुओं को इन दैवी आपत्तियों की पूर्व सूचना मिल जाती है, तथा वे सबको सावधान करने का प्रयत्न करते हैं। समुद्र का पानी भयंकर गति से जब चढ़ता है तो, उसके एक दिन पहले सीगाल नामक पक्षी सुरक्षित स्थल पर चले जाते हैं।
तथा अनेक मामलों में देखा गया कि भयंकर भूकम्प के समय कुत्ते भौंकते हुये, बिल्लियां और गायें इतनी जोर से चिल्लाये कि सारा नगर जाग गया, तथा उसके कुछ क्षणों बाद भूचाल आया, इस लिये शकुन विद्या को अवैज्ञानिक या अविश्वस्त मानना या कहना कोई बुद्धिमत्ता नहीं हैं।
जिस प्रकार गणित की सूक्ष्म प्रक्रिया में सामान्य भूल होने पर आधुनिक यंत्रों का निर्माण एवं उनकी कार्य प्रणाली यथेष्ट नहीं हो पाती है, उसी प्रकार शुभाशुभ शकुनों के फलादेशों में कभी-कभी जो वैपरीत्य दिखाई देता है, उसका एकमात्र कारण यह है कि हमारा निमित्त ज्ञान परिपूर्ण नहीं है।
अतः दृष्ट तथा श्रृत शुभाशुभ शकुन के अनुसन्धानों में रही हुई त्रुटियों का हमें बोध नहीं हो पाता। इसलिये फलादेश हमें विपरीत मालुम देता है। यह सत्य है, किन्तु हम अपने अज्ञान का दोष विद्या पर मढ़ कर उस विद्या को अवैज्ञानिक या अस्तित्वहीन कहें यह अनुचित है। श्रीमद्भागवत का शकुनशास्त्र से विशेष परिचय जान पड़ता है।
उसमें उत्पातों के तीन भेद बतलाए गये है। वे भेद दिव्य, भौम तथा आन्तरिक्ष उत्पात के रूप में हैं। ये अपने-अपने क्षेत्र में घटित होने के कारण इन नामों से अभिहित किये गये है। (श्री. भा. 3. 17. 3; 11. 30. 4) एक अन्य स्थल में उत्पातों के तीन भेदों में अन्तरिक्ष के स्थान पर दैहिक की गणना की गई है (श्री. भा. 1. 14. 10)।
अर्जुन के द्धारका से नहीं लौटने पर युधिष्ठिर ने घोर रूप वाले विविध अपशकुनों को देखा। काल की गति रौद्र हो गयी थी। प्रकृति में ऋतु के विपरीत लक्षण दीखने लगे थे। अतिशय भय कारक निमित्तों को देख कर युधिष्ठर को मनुष्यों के प्रलयकाल की आशंका होने लगी थी (श्री. भा. 1. 14. 2-5) । उन्होंने भीम को उन दिव्य, भौम और दैहिक उत्पातों की ओर संकेत किया। बुद्धि को मोहित करने वाले उत्पातों को देखकर आने वाले अनर्थ को वे जान गये थे।
उनकी जंघा, आँखे एवं बाहु बार-बार फड़कने लगे। हृदय में कम्पन होने लगा। अग्नि के समान लाल मुख वाली शिवा (मियारनी) उगते हुये सूर्य की और मुख करके रोने लगी। कुत्ते निडर होकर उनकी ओर मुख करके रो रहे थे। अच्छे पशु बाँयी ओर से तथा बुरे पशु दहिनी ओर से गुजरने लगे। वाहन के पशु हाथी घोडे आदि रोने लगे।
मृत्युदूत पेडुखी, उल्लू और कौये रात को कठोर शब्द करने लगे। दिशाएं धुंधली हो गयी थी। सूर्य और चन्द्र की चारों और बार-बार परिवेष मण्डल लगने लगे थे। पृथ्वी एवं पर्वतों में कम्पन होने लगे। बादल जोर-जोर से गरजने लगे। यत्र-तत्र विजली गिरने लगी। शरीर को छेदने वाली तथा धूल से अन्धकार फैलाने वाली आंधी चलने लगी।
बादलों में भयानक दृश्य बनने लगे, और उनसे शोणित की वर्षा होने लगी। आकाश में ग्रह-युद्ध होने लगे। दिशाओं में दाह होने लगे। नदी, नद, तालाब और लोगों के मन क्षुब्ध हो गये। घी से भी आग नहीं जलती थी। बछड़ों ने दूध पीना छोड दिया। गौयें दूहने नहीं देती थीं।
गोशाला में गौंयें रो रही थीं। बैल सब उदास थे। देवताओं की मूर्तियाँ रोने लगी थीं। उनसे पसीना चूने लगा था। उनमें कम्पन भी होने लगा। देश, गाँव, शहर, बगीचे, धर्मशालायें और आश्रम शोभाहीन और आनन्दरहित लगने लगे (श्री. भा. 1. 14. 10-21)।
इसी प्रकार हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के जन्म के समय विविध उत्पातों के घटित होने का उल्लेख भी है। इस समय तीनों प्रकार के उत्पात हुये। पृथ्वी एवं पर्वत में कम्पन, उल्कापात वज्रपात और धूमकेतु के उदय होने लग गये। भयानक शब्द के साथ वृक्षों को उखाड़ने वाली विकट एवं असह्म आंधी आयी।
धूलों से सम्पूर्ण पृथ्वी एवं आकाश व्याप्त हो गये। बिजली की चमक भयानक हो गयी थी। मेघों की सधन घटाओं से सूर्य-चन्द्र लुप्त हो गये और अंधकार छा गया। समुद्र मे दुःखी मनुष्य की तरह कोलाहल होने लगा। उसमें ऊंची तरंगें उडने लगीं। समुद्री जीवों में हलचल मच गयी। नदियों तथा तालाबों मे भी खलबली मच गयी।
अनेक कमल सूख गये। सूर्य चन्द्र के बारबार ग्रहण होने गले। उनके आमंगल सूचक परिवेष भी लगने लगे। बिना बादलों के गर्जना सुनायी देने लगी। गुफाओं में रथ की आवाज-सी सुनाई देने लगी। गांवों में गीदड़ और उल्लुओं के भयानक शब्द के साथ गीदड़नियां मुख से आग उगल कर अमगंल शब्द करने लगीं।
कुत्ते गरदन ऊपर उठाकर कभी गाने तथा कभी रोने का शब्द करने लगे। झुण्ड के झुण्ड गधे पृथ्वी खोदते और कठोर शब्दों के साथ रेंगते हुये इधर-उधर दौडने गले। पक्षीगण गधों के शब्द से डर कर घोसलों को छोडकर रोने-चिल्लाने लगे। बंधे और बन में चरते पशु डर कर मलमूत्र त्यागने लगे।
गौयें ऐसी डर गयीं कि दूहने पर उनके थन से खून निकलने लगा। बादलों से पीब की वर्षा होने लगी। देवमूर्तियाँ रोने लगीं। तथा बिना वायु के ही वृक्ष हिलने लगे। शनि, राहु आदि क्रूर ग्रह प्रबल होकर चन्द्र बृहस्पति आदि सौम्य ग्रहों तथा अनेक नक्षत्रों का अतिक्रमण कर वक्रगति हो गये। ग्रहों के युद्ध होने लगें। इन उत्पातों को देखकर सनक आदि ऋषियों को छोडकर शेष सभी जीव भयभीत हो गये (श्री. भा. 3. 17. 3-15)।
हिरण्यकशिपु की तपस्या के समय भी ऐसे ही उत्पात हुए थे। ग्रह और तारे टूट-टूट कर गिरने लगे थे। तथा दिग्दाह होने लगे थे। (श्री. भा. 7. 3. 5) इस प्रकार श्रीमद्भागवत में दित्य, भौम, एवं आन्तरिक्ष एवं दैहिक उत्पातों का विशद वर्णन मिलता है।
कंस की मृत्यु निकट आने पर उसने जो अशुभ निमित्त देखे उनका विशद वर्णन भी श्री मदूभागवत में प्राप्त होता है- जाग्रित अवस्था में कंस को जल या दर्पण में छापा पड़ने पर भी शिर नहीं दीखता था। चन्द्र तारे, सूर्य एवं दीप दो-दो दिखाई पड़ते थे। अपनी छाया में छेद दीखता था।
कानों में अंगुली डालकर सुनने पर प्राणों का धूं-धूं शब्द नहीं सुनाई पड़ता था। वृक्ष सुनहरे प्रतीत होते थे। घूल आदि में चलने पर अपने पैरों के चिह्न नहीं दीखते थे। वह स्वप्न में प्रेतों से लिपटता था। गधे की सवारी करता था। विष का भक्षण करता था। अड़हुल की माला पहनता था। तेल की मालिश करता था और नंगे शरीर होकर यात्रा करता था। इन अपशकुनों को देख कर कंस अपनी निकट मृत्यु के आभास से भयभीत हो गया था। (श्री. भा. 10. 42. 28-30)।
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