राहु और केतु
राहु – केतु का मनुष्य पर प्रभाव :-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant),
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राहु एवं केतु छाया ग्रह कहे जाते हैं। सूर्यादि अन्य ग्रहों के समान इनका स्वतंत्र पिंड और भार नहीं है, उनकी तरह ये दिखलाई भी नहीं देते, अपने क्रान्ति वृत पर भ्रमण करता चन्द्रमा जब भचक्र (पृथ्वी के भ्रमण मार्ग) के उस बिन्दु पर पहुंचता है। जिसे काटकर वह उत्तर की ओर चला जाता है। वह बिन्दु राहु कहलाता है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसीलिए इसको ‘‘नॉथ नोड ऑफ द मून’’ कहा जाता है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार राहु एक चतुर एवं धूर्त राक्षस था, जो समुद्र मन्थन से निकले अमृत के वितरण के समय, मोहिनी रूपधारी भगवान् विष्णु के छल को तत्काल भॉप कर, स्वार्थ (अमृत पान) सिद्वि हेतु रूप बदल कर देव पंक्ति में बैठ गया।
सूर्य चन्द्र के संकेत से विष्णु ने उसका शिरोच्छेद किया तथापि अमृत पान के कारण उसकी मृत्यु तो नहीं हो सकी। उल्टे उसका शिरो भाग राहु एवं शेष शरीर केतु कहलाया। इसीलिए यह सूर्य एवं चन्द्र का भंयकर शत्रु बन गया। यह तामसिक एवं महापापी ग्रह हैं। भौतिक साधनों की किसी भी मूल्य पर प्राप्ति लालसा इसका स्वभाव है, जिसके लिए यह निकृष्ट से निकृष्ट साधन अपना सकता हैं। मूलतः यह अविद्या का कारक है जो आत्मा को अन्धकार से आच्छादित कर लेता है। इस के मायावी प्रभाव से जातक की बुद्धि उलझती चली जाती है।
कर्मपाश और गहरा जाते हैं यदि सभी ग्रह राहु-केतु के बीच में आ जाते हैं तो ‘काल सर्प योग’ का जन्म होता है। जिसे विशेष अनिष्ट कारक एवं दुर्भाग्यशाली योग माना गया है। छाया ग्रह होने के बावजूद भी ज्योतिष मर्मज्ञों ने फलित में इनसे सदा सर्तक रहने का संकेत दिया है। जन्मांग में अच्छा होने पर भी इसका चौथाई दोष तो बचा ही रहता है इस अशुभ ग्रह का रंग बिलकुल काला, वस्त्र काले एवं चित्र-विचित्र, जाति शूद्र, आकार दीर्घ और भयानक, स्वभाव तीक्ष्ण, दृष्टि नीच, गुण अत्यधिक तामस, प्रकृति वात प्रधान, तथा अवस्था अति वृद्ध मानी जाती हैं।
रूड़ी एवं मायाचारी विद्या के कारक इस पुरूष ग्रह की दिशा नैऋत्य, भूमि ऊसर। धातु लोहा, मतान्तर से पंचधातु, स्थान सांप के बिल, रोग अस्थि रोग, तथा ऋतुशिशिर कही गयी हैं। हृदय से कपटी, पाखण्डी तथा झूठ बोलने वाले इस ग्रह से पितामह का विशेष विचार किया जाता है।
राहु-केतु के मायावी प्रभाव से जातक की जड़- बुद्वि उलझती चली जाती है। कर्मपाश और गहरा जाते हैं यदि सभी ग्रह राहु-केतु के बीच में आ जाते हैं तो ‘काल सर्प योग’ का जन्म होता है। जिसे विशेष अनिष्ट कारक एवं दुर्भाग्यशाली योग माना गया है। छाया ग्रह होने के बावजूद भी ज्योतिषमर्मज्ञों ने फलित में इनसे सदा सर्तक रहने का संकेत दिया है। मिथुन राशि के 15 अंश पर इसे उच्च का मानते हैं।
महर्षि पराशर के अनुसार राहु की उच्चराशि वृष है। इसकी स्वराशि एवं उच्चराशि के बारे में विद्वानों में मतभेद है। कर्क राशि इसी मूल त्रिकोण राशि एवं कुम्भ तथा कन्या स्वगृह कहे गए है। मेष, वृश्चिक, कुम्भ, कन्या, वृष तथा कर्क राशि तथा जन्मांग के तीसरे, छठे, दसवें और ग्याहरवें भाव में इसे बलवान माना गया है। सूर्य, चन्द्र एवं मंगल इसके शत्रु, गुरू सम एवं शेष ग्रह मित्र होते हैं। आद्रा स्वाती एवं शतभिषा नक्षत्रों का अधिपति राहु एक राशि में प्रायः 18 महीने भ्रमण करता है। यह सदा वक्री ही रहता है, अर्थात उल्टा चलता है।
इसका प्रधान देवता काल व अधिदेवता सर्प है। झूठ, कुतर्क, दुष्ट अथवा अन्त्यज स्त्री गमन, नीच जनों का आश्रय, गुप्त और षड़यंत्रकारी कार्य, धोखे-बाजी, विश्वासघात जुआ, अधार्मिकता, चोरी, पशुमैथुन, रिश्वत लेना, भ्रष्टाचार निन्ध्य एवं गुप्त पाप कर्म, दांई ओर से लिखी जाने वाली भाषा जैसे उर्दू, कठोर भाषण, अन्य देश में गमन, विषम स्थान भ्रमण, छत्र, दुर्गा उपासना, राजवैभव, पितामह, आकस्मिक आपत्तियाँ इन का कारक राहु माना गया है।
निर्बल राहु के कारण वायु विकार, अपस्समार (मिर्गी), चेचक, कोढ़, हकलाहट, देहताप, पूराने जटिल रोग, विषविकार, पैरों के रोग, महामारी, सर्पदंश, बालारिष्ट, फौड़े, जेल जाना, स्त्री योग, प्रेत-पिशाच सर्प से भय, शत्रु पीड़ा, ब्राह्यण और क्षत्रिय से विरोध, स्त्री पुत्र पर आपत्ति, संक्रामक एवं कृमिजन्य रोग, आत्महत्या की प्रवृत्ति, बालरोग आदि पीड़ायें सम्भावित हैं।
राहु-केतु जन्मांग के जिस भाव में बैठते हैं उसके भावेश के अनुसार एवं जिस ग्रह के साथ बैठते हैं, उसके अनुसार विशेष फल प्रदान करते हैं। तथापि 3, 6, 11 भावों के अतिरिक्त प्रत्येक भाव में स्थित राहु प्रायः अनिष्ट फलकारक ही होता है पाप एवं क्रूर ग्रहों के साथ राहु को बहुत भयानक माना गया है अपनी उच्च एवं मित्र राशि व शत्रु ग्रह की दृष्टि से अशुभ फलों में कमी आ जाती है।
राहु-केतु के एकादश भाव में प्रभाव :-
प्रथम भाव में अशुभ और निर्बल राहु- कामुक, स्वार्थी एवं दुष्ट प्रवृति, धूर्तता, गुप्त महत्वकांक्षाओं में निराशा, ईर्ष्या, काम भोग में अतृप्ति पाप पूर्ण विचार, वैवाहिक जीवन में विलम्ब और विषमता, गर्भपात, वातरोग, नशेबाजी आदि देता है। आन्तरिक असन्तोष एवं व्यभिचार भी इसकी देन होती हैं। शनि के साथ स्थित होने से क्षय रोग का भय रहता है।
द्वितीय भावस्थ राहु, वाँणी एवं गले में दोष, रोग, हकलाहट, निन्द्य एवं कटु भाषण, धन, परिवार में अस्थिरता व क्लेश, भ्रष्ट स्त्रियों से धनोपार्जन शिक्षा में बाधा, हीन मनोवृत्ति, प्रदान करता है।
तीसरे भाव में राहु अच्छा फल प्रदान करता है परन्तु कर्ण रोग, भाईयों को कष्ट एवं स्वजनों से कष्ट आदि अशुभ फल भी देता है।
चतुर्थ भाव में राहु माता को कष्टकारक, असन्तोष, कपट, उन्नति, प्रमोशन आदि में बाधा, उदर व्याधि, काल सर्प योग होने से जातक की भिखारी जैसी परिस्थिति में, अपने घर से दूर मृत्यु होने की सम्भावना बनती है। स्त्री जन्मांग में चतुर्थस्थ राहु यदि चन्द्र और शनि या मंगल से युक्त है तो स्वयं एवं माता के चरित्र को संदिग्ध तथा दाम्पत्य विषमता का योग बनाता है। राहु, शनि, चन्द्र और मंगल की युति विष प्रयोग या आत्महत्या कारक भी होती है।
पंचम भाव में या पंचमेश युक्त, पाप सहित या दृष्ट राहु सर्प-श्राप से सन्तान बाधक या कष्ट योग कारक बनाता है। उदर विकार, शूल, गर्भपात, क्रोधी अनियंत्रित तेज मिजाज, चित्त भ्रान्ति, स्त्री कष्ट कारक आदि फल होते हैं।
छठे भाव का दूषित एवं निर्बल राहु, कलह, शत्रु, भय, स्वजन विग्रह, भ्रष्ट आचरण, गुदा रोग, कुष्ट चर्मरोग, कमर दर्द, दांत के रोग, परस्त्री गमन, मामा को कष्ट, पत्थर आदि से चोट या पेड़ से गिरने की सम्भावना व्यक्त करता है। छठे और आठवें भाव में पाप दृष्ट मंगल सहित राहु आत्महत्या की प्रवृत्ति देता है। इस योग में यदि चन्द्रमा भी हो तो उन्माद भय कारक होता है।
सप्तम भाव के पाप युक्त विशेष रूप से शनि युक्त राहु को एक अभिशाप ही समझना चाहिए। दूषित और निर्बल राहु इस भाव में- वैवाहिक जीवन में विषमता, अवैध सम्बन्ध, पत्नी के लिए कष्टकारक एवं स्वयं को भी उनसे कष्ट प्राप्ति, प्रमेह, धातु अथवा वात विकार, हड्डी आदि टूटना, दुर्घटनाएं, विवाह में विलम्ब द्विभार्या योग, सेक्स जीवन में कुण्ठा, द्यूत, मद्यपान प्रवृत्ति, सर्प-दंश या विष से भय आदि अशुभ फलकारक है। पूर्व जन्म में किसी स्त्री को भ्रष्ट करने या अकारण कष्ट देने के कारण ही ऐसे अभिशाप स्वरूप राहु की सप्तम भाव में स्थिति होती हैं।
अष्टमस्थ राहु जातक को उदर बवासीर व गुप्त रोगी, अण्डकोश वृद्वि, क्रोधी, बकवादी, चोर, क्रूरपापकर्मा, व्यभिचारी, विश्वासघाती एवं षड्यंत्रकारी बनाता है। शनि, गुलिक शुक्र के साथ अप्राकृतिक मैथुन प्रवृत्ति देता है (सप्तम भाव में भी यही फल है)। मंगल के साथ दुर्घटना, विष और अग्नि से भय, चेचक, पित्त प्रकोप और उष्ण रोग, आकस्मिक मृत्यु कारक, स्त्री जन्मांग में वैधव्य कारक और विषकन्या व चरित्रहीन योग आदि दुष्ट फल होते हैं।
नवम भाव में राहु पिता के लिए अरिष्ट कारक, पुत्र शोक, झूठ मुखौटा, गुरूद्वेष या गुरूश्राप, बन्धु विरोध या हानि, शूद्र स्त्री से संभोग का सूचक है। भाग्योदय में रूकावटें आती हैं, जिससे मानसिक संताप होता हैं।
एकादश भाव का दूषित राहु, मन्दाग्नि, पेचिश आदि उदर विकार, सुस्ती, सन्तानकष्ट और रिश्वतखोरी, धूर्तता का सूचक है।
बारहवें भाव के राहु का प्रभाव बहुत अशुभ माना गया है। दुर्भाग्य, पापचरण, धन नाश, व्यसन, स्त्री पुत्र को कष्ट, असफलतायें, हानि, प्रपंच कपट दुर्बद्वि, नेत्र चर्म रोग, पार्श्व व हृदय में वातजन्य शूल, दीर्घकालीन रोग, मानसिक व यौन दुर्बलता, आत्माहत्या की प्रवृत्ति सूचक है। इस स्थिति में शतचण्डी अनुष्ठान और हवन करना चाहिए। राहु पीड़ा नागश्राप से भी सम्बन्धित रहती है, अतः नागदेव की मूर्ति बनवाकर उसकी विधिवत पूजा करके, दान करना चाहिए। सामान्य जन अधिक न करें, तो राहु मन्त्र का जप- हवन और भार्गव ऋषि प्रणीत लक्ष्मी -हृदय का पाठ करें, साथ ही शनि का व्रत करें, क्योंकि ‘शनिवद् राहुः’ प्रसिद्ध ही है। औषधी स्नान, एवं गूगल की नित्य धूप देना भी लाभप्रद हैं। गोमेद धारण और राहु मंत्र का जाप भी लाभप्रद रहेगा। नित्य देवी पूजन और यथा शक्ति काले पदार्थों का दान करते रहना चाहिए।
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