रोग निवारण मंत्र
अग्नि पुराण से :-
Dr.R.B.Dhawan (Astrological Consultant)
अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ! अब मैं ग्रहों के उपहार और मंत्र आदि का वर्णन करूंगा, जो ग्रहों को शान्त करने वाले हैं। हर्ष, इच्छा, भय और शोकादि से, जो ग्रहों को शान्त करने वाले हैं। हर्ष, इच्छा, भय और शोकादि से, प्रकृति के विरुद्ध तथा अपवित्र भोजन से और गुरु एवं देवता के कोप से मनुष्य को पाँच प्रकार के उन्माद होते हैं। वे वातज, कफज, पित्तज, सन्निपातज और आगन्तुक कहे जाते है। भगवान् रूद्र के क्रोध से अनेक प्रकार के देवादि ग्रह उत्पन्न हुए। वे ग्रह नदी, तालाब, पोखरे, पर्वत, उपवन, पुल, नदी संगम, शून्य गृह, विलद्वार और एकान्तवर्ती अकेले वृक्ष पर रहते और वहां जाने वाले पुरुषों को पकड़ते हैं। इसके सिवा वे सोयी हुई गर्भवती स्त्री को, जिसका ऋतुफल निकट है उस नारी को, नंगी औरत को तथा जो ऋतुस्नान कर रही हो, ऐसी स्त्री को भी पकड़ते हैं।
मनुष्यों के अपमान, बैर, विघ्न, भाग्य में, उलट-फेर इन ग्रहों से ही होते हैं। जो मनुष्य देवता, गुरु, धर्मादि तथा सदाचार आदि का उल्लंघन करता है। पर्वत और वृक्ष आदि से गिरता है, अपने केशों को बार-बार नोचता है, तथा लाल आँखें किये रूदन और नर्तन करता है, उसको ‘रूप’ ग्रह विशेष से पीड़ित जानना चाहिए। जो मानव उद्वेगयुक्त, दाह और शूल से पीड़ित, भूख-प्यास से व्याकुल और शिरो रोग से आतुर होता और ‘मुझे दो, मुझे दो’- यों कहकर याचना करता है, उसे ‘बलिकामी’ ग्रह से पीड़ित जाने। स्त्री, माला, स्नान और संभोग इच्छा से युक्त मनुष्य को ‘रतिकामी’ ग्रह से गृहीत समझना चाहिये।
व्योमव्यापी, महासुदर्शन मंत्र, विटपनासिक, पाताल नार-सिंहादि मंत्र तथा चण्डी मंत्र-ये ग्रहों का मर्दंन ग्रहपीड़ा का निवारण करनेवाले हैं।
अब ग्रह पीडानाशन भगवान् सूर्य की आराधना बतलाते हैं- सूर्यदेव अपने दाहिने हाथों में पाश, अंकुश, अक्षमाला और कपाल तथा बायें हाथों में खट्वांग, कमल, चक्र और शक्ति धारण करते हैं। उनके चार मुख हैं। वे आठ भुजा और बारह नेत्र धारण करते हैं। सूर्यमण्डल के भीतर कमल के आसन पर विराजमान हैं और आदित्यादि देवगणों से घिरे हुए हैं। इस प्रकार उनका ध्यान और पूजन करके सूर्योदय काल में उन्हें अघ्र्य दे। अघ्र्यदान का मंत्र इस प्रकार है-श्वास (य), विष (ओं), अग्निमान् ग्ण्डी (र् + ओं), हल्लेखा (हृीं)- यें संकेताक्षर हैं। इन सबको जोड़कर शुद्ध मंत्र हुआ-) यौं रौं ऐं हृीं कलाशार्काय भूर्भुवः स्वरों ज्वालिनी कुलमुद्धर।
ग्रहों का ध्यान-
सूर्यदेव कमल के आसन पर विराजमान हैं। उनकी अर्गकान्ति अरुण है। वे रक्तवस्त्र धारण करते हैं। उनका मण्डल ज्योतिर्मय है। वे उदार स्वभाव के हैं और दोनों हाथों में कमल धारण करते हैं। उनकी प्रकृति सौम्य है तथा सारे अंग दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। सूर्य आदि सभी ग्रह सौम्य, बलदायक तथा कमलधारी हैं। उन सबका वस्त्र विद्युत-पुंज के समान प्रकाशमान है। चन्द्रमा श्वेत, मंगल और बुध लाल, बृहस्पति पीतवर्ण, शुक्र शुक्लवर्ण, शनैश्चर काले कोयले के समान कृष्ण तथा राहु और केतु धूम के समान वर्ण वाले बताये गये हैं। इन सबके बायें हाथ बायीं जांघ पर स्थित है और दाहिने हाथ में अभयमुद्रा शोभा पाती है। ग्रहों के अपने-अपने नाम के आदि अक्षर बिन्दुयुक्त होकर बीजमंत्र होते हैं। ‘फट्’ कर उच्चारण करके दोनों हाथों का संशोधन करे। फिर अंगुष्ठ से लेकर करतालपर्यन्त करन्यास और नेत्ररहित हृदयादि पंचाग-न्यास करके भानु के मूल बीजस्वरूप तीन अक्षरों (हृां, हृीं, सः) द्वारा व्यापक न्यास करें। उसका क्रम इस प्रकार है- मूलाधार चक्र से पादाग्रपर्यन्त प्रथम बीज का, कंठ से मूलाधारपर्यन्त द्वितीय बीज का और मूर्धा से लेकर कंठपर्यंत तृतीय बीज का न्यास करें। इस प्रकार अंगन्यास सहित सम्पादन करके अघ्र्यपात्र को अस्त्र-मंत्र से प्रक्षालित करें और पूर्वाेक्त मूलमंत्र का उच्चारण करके उस पात्र को जल से भर दें। फिर उसमें गंध, पुष्प, अक्षत और दूर्वा डालकर पुनः उसे अभिमंत्रित करें। उस अभिमंत्रित जल से अपना और पूजाद्रव्य का अवश्य ही प्रेक्षण करें।
तत्पश्चात् योगपीठ की कल्पना करके उस पीठ के पायों के ‘प्रभूत’ आदि की कल्पना करें। वे क्रमशः इस प्रकार हैं- प्रभूत, विमल, सार, आराध्य और परमसुख। आग्नेयादि चार कोणों में और मध्यभाग में इनके नाम के अंत में ‘नमः’ पद जोड़कर इनका आवाह्न-पूजन करें। योगपीठ के ऊपर हृदयकमल में तथा दिशा-विदिशाओं में दीप्ता आदि शक्तियों की स्थापना करें। पीठ के ऊपरी भाग में हृदय कमल को स्थापित करके उसके केसरों में आठ शक्तियों की पूजा करनी चाहिए।
रां दीप्ताथै नमः पूर्वस्याम्।
रीं सूक्ष्मायै नमः आग्नेयकेसरे।
रूं जयायै नमः दक्षिणकेसरे।
रें भद्रायै नमः नैर्ऋत्यकेसरे।
रैं विभूत्यै नमः परिश्रमकेसरे।
रौं विमलायै नमः वायव्य-केसरे।
रौं अमोघायै नमः उत्तरकेसरे ।
रं विद्युतायै नमः ईशानकेसरे।
रः सर्वंतोमुख्यै नमः मध्ये।
इस प्रकार शक्तियों की अर्चना करके ॐ ब्रह्म, विष्णु, शिवात्मकाय सौराय योगपीठाय नमः। इस मंत्र से समस्त पीठ की पूजा करे। सुव्रत! तत्पश्चात् रवि आदि मूर्तियों को आवाह्न करके उन्हें पाद्यादि समर्पित करें और क्रमशः हृदादि षडङ्गन्यासपूर्वक पूजन करें। ‘खं कान्तौ’ इत्यादि संकेत से ‘खं खखोल्काय नमः’ यह मंत्र प्रकट होता है। यथा ‘खं’ मंत्र का स्वरूप है- कान्त-‘ख’ है, दण्डिनी-‘ख’ है, चण्ड-‘उकार’ है दीर्घा-दीर्घस्वर आकार से युक्त जल ‘क’ अर्थात् ‘का’ तथा वायु-‘यकार’। इन सबके अन्त में हृद्-नमः। इसके उच्चारणपूर्वक, ‘आदित्यमूर्ति परिकल्पयामि, रविमूर्ति परिकल्पयामि, भानुमूर्ति परिकल्पयामि, भास्करमूर्ति परिकल्पयामि, सूर्यमूर्ति परिकल्ययामि’- यों कहना चाहिए। इन मूर्तियों के पूजन का मंत्र इस प्रकार है- ‘ॐ आदित्याय नमः। एं रविये नमः। ॐ भानवे नमः। इं भास्कराय नमः। अं सूर्याय नमः।’ अग्निकोण, नैऋत्यकोण, ईशानकोण और वायव्यकोण-इन चार कोणों में तथा मध्य में हृदयादि पाँच अंगों की उनके नाम-मंत्रों से पूजा करनी चाहिए। वे कर्णिका के भीतर ही उक्त दिशाओं में पूजनीय हैं। अस्त्र की पूजा अपने सामने की दिशा में करनी चाहिए। पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः चन्द्रमा, बुध, गुरु और शुक्र पूजनीय हैं तथा आग्नेय आदि कोणों में मंगल, शनैश्चर, राहु और केतु की पूजा करनी चाहिए।
पृश्निपर्णी, हींग, बच, चक्र (पित्तपापड़ा), शिरीष, लहसुन और आभय-इन औषधियों को बकरे के मूत्र में पीसकर अंजन और नस्य तैयार कर लें। उस अंजन और नस्य के निवारण करनेवाले होते हैं। पाठा, पथ्या (हरैं), वचा, शिग्नु (सहिजन), सिन्धु (सेंधा नमक), व्योष (त्रिकटु)- इन औषधों को पृथक्-पृथक् एक-एक पल लेकर उन्हें बकरी के एक आढ़क दूध में पका लें और उस दूध से घी निकाल ले। वह घी समस्त ग्रह-बाधाओं को हर लेता है। वृश्चिकाली (बिच्छू-घास), बला, कूट, सभी तरह के नमक तथा शार्ङं्क-इनको जल में पका लें। उस जल का अपस्मार (मिरगी) के विनाश के लिये उपयोग करे। विदारीकंद, कुश, काश तथा ईंख के क्वाथ सिद्ध किया हुआ दूध रोगी को पिलाये। जेठी-मधु और मकोय के एक दोने रस में घी को पकाकर दें। अथवा पंचगव्य घी का उस रोग में प्रयोग करें। अब ज्वर-निवारक उपाय सुनो।
ज्वर गायत्री :-
ॐ भस्मास्राय विद्महे। एकदंष्ट्राय धीमहि। तन्नो ज्वरः प्रचोदयात्।
इस मंत्र के जप से ज्वर दूर होता है। श्वास (दमा) का रोगी कृष्णोषण (काली मिर्च), हल्दी, रास्ना, द्राक्षा और तिलका तैल एवं गुड़का आस्वादन करें। अथवा वह रोगी जेठीमधु (मुलहठी) और घी के साथ भागों का सेवन करे यापाटा, तिक्ता (कुटकी), कर्णा (पिप्पली) तथा भारंगीं को मधु के साथ चाटें। धात्री (आंवला), विश्वा (सोंठ), सिता (मिश्री), कृष्णा (पिप्पली), मुस्ता (नागरमोथा), खूजर मागधी (खजूर और पीपले) तथा पीवरा (शतावर)- वे औषध हिक्का (हिचकी) दूर करनेवाले हैं। उपर्युक्त तीनों योग मधु के साथ लेने चाहिए। कामल-रोग से ग्रस्त मनुष्य को जीरा, माण्डूकपर्णी, हल्दी और आंवले का रस पिलाना चाहिए। त्रिकुुट, पद्मकाष्ठ, त्रिफला, वायविडगं, देवदारू तथा रास्ना-इन सबको सममात्रा में लेकर चूर्ण बना लें और खांड मिलाकर उसे खायें। इस औषध से अवश्य ही खांसी दूर हो जाती है।
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